प्रिय पाठक,
'अंकुरण' एक बार फिर नए उमंग और नई सोच के साथ आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
नारी, जो जीवन का एक आधार है, इस विकास और संघर्ष के दौर में भी उनकी स्थिति दयनीय है। स्त्रियों का एक मध्यम वर्ग दैहिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर निम्न वर्ग की स्त्रियां दैहिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत है। यहां स्त्रियां सामाजिक बोझ तले दब जाती हैं। भारतीय समाज में स्त्रियों को देवी का दर्जा दिया जाता है, देवियों के बोझ तले उनका मनुष्यत्व घुट-घुट कर दम तोड़ देता है और वह स्वयं भी नहीं जान पाती। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता जैसी उक्तियां इसी का उदाहरण है। 'समाज का दोहरापन', 'उस जमाने की औरत' तथा 'उड़ने की बारी है' नामक कविता यहां प्रासंगिक ठहरती है। एक और भी कविता है आखिर क्यों? साड़ी ब्लाउज पहनना ही स्त्री की सभ्यता है? क्या जींस टॉप पहनी हुयी नारी सभ्य नहीं हो सकती ? चरित्रवान क्या सिर्फ स्त्री को ही होना चाहिए? इस तरह के अनेक विचारणीय कटु प्रश्नों को हमारे लिए छोड़ जाती है। एक महिला का जीवन वैसे भी संघर्ष से कम नहीं होता। इस तरह की इन सभी धारणाओं पर गौर कीजिएगा और खुद से सवाल करिएगा कि आखिरकार ऐसा भेदभाव क्यों और कब तक?
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